समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ…

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समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ

मन मेरा बढ़ता है, निरखता

बीते हुए रिक्त अंतराल को.

विचरते मार्ग से उस विशाल रिक्ति के

उभरते हैं चित्र मेरी आँखों के आगे.

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शापमुक्त !

पाषाण बनी, पापग्रस्त,

शापग्रस्त,

ऋषि गौतम की पत्नी, देवी अहिल्या

प्रभु राम के पाद-स्पर्ष से

शापमुक्त हो जाग्रत हुयी हैं.

इस अवस्था में

कवि रवींद्रनाथ का हृदय

पापमुक्त महासती अहिल्या से

  किस अंतरंगता से जुड़ता है

                                          आइये देखें;

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मैंने प्यार किया है तुझे सदा सहस्रों रूपों में …..

मैंने प्यार किया है तुझे सदा सहस्रों रूपों में

      और कालों में,

हर युग में, जन्म के पश्चात् हर जन्म में.

माला गीतों की जो मेरे पूजक हृदय ने

बुनी थी ,

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विरोधाभास

आज दुनिया में कितना विरोधाभास भर गया है. एक तरफ है,शांति और सौष्ठव का प्रयास।
तो दूसरी ओर है उसे ही नष्ट करने की भयंकर भंगिमा!

रण-नाद बज रहे हैं.

नर बना लेते है अपनी आकृतियाँ विद्र्रूप

और पीसते हैं अपने दांत;

पहले दौड़ने के, समेटने कच्चा

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वह संथाल स्त्री….

एक स्त्री को मजदूर बनाकर काम पर लगा दिया गया है और वह बहुत आनंद के साथ इस काम का निर्वहन कर रही है; वैसे ही जैसे वह अपने परिवार के पालन पोषण के लिए प्रफुल्लचित्त काम किया करती है !

बारजे पर बैठे हुए ऐसी काम करनेवाली स्त्री को देखकर कवि का हृदय दयार्द्र हो उठता है !
देखिये फिर क्या होता है –

वह संथाल स्त्री दौड़ती है नीचे और ऊपर

उस कंकरीले पथ पर नीचे शिमूल

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परमाणु-संचय, चेतना-युत; जिज्ञासु पदार्थ !

रिचर्ड फाइनमेन इस सदी के मूर्धन्य वैज्ञानिक हुए हैं !
एक बार उनसे विज्ञान के सामाजिक दायित्व के विषय में पूछा गया !

उनका उत्तर इस विषय पर बड़ा स्पष्ट और मार्मिक था ! उन्होंने कहा, सामाजिक समस्यायें वैज्ञानिकों के लिए उतनी ही दुरूह हैं, जितनी सामान्यजनों के लिए वैज्ञानिक गुत्थियाँ !

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अंतर

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तेजी से उतरते ज्वार के कुहासे में उस सवेरे

जब मैं अपनी सुबह की दौड़ पे निकला, सूरज खुल के चमक रहा था.

चिन्ताओं और झंझटों की अपनी निजी दुनिया में खोया हुआ

मैं समुद्र तट पर दौड़ा तो भीगी हुयी रेत अंगुलियों में फंस रही थी.

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चेकोस्लोवाकिया को स्वतंत्रता पर बधाई

होकर व्यथित इतिहास से मनुष्य के, 

चला आता है बुहारता एक बवाल 

विध्वंसका –

तथा मीनारें सभ्यता की भसक्ती जाती हैं  

धूल में.

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मौत का भय !

मनुष्य के जीवन में ऐसे अनेक मौके आते हैं जब वह सही काम करते हुए भी बेहद डर जाता है और उसका आत्म विश्वास डिग जाता है.तब रवीन्द्र नाथ की भारतीय अस्मिता किस तरह उसके आत्मविश्वास को वापस ले आती है.
देखिये —

तुम दिखे दूर से

विकराल अपनी रहस्यमयी भव्यता में

आतंक की.

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मुझे लगा, मैं उससे कुछ कहना चाहता हूँ..

मुझे लगा, मैं उससे कुछ कहना चाहता हूँ.

जब हमारे नेत्र मिले राह पर.

किन्तु वह चली गयी, और वह डोलती है दिन

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