आचार्य रजनीश करेली-नरसिंहपुर के रहने वाले थे। उन्होंने सागर जाकर विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग से पढ़ाई करके बी.ए. पास कर लिया तो माता पिता अपनी आर्थिक स्थिति को देखकर आगे न पढ़ने कह दिया।
पर उन्हें तो पोस्ट ग्रेजुएशन करना था। होशियार थे; और उनके विभागाध्यक्ष भी चाहते थे, पोस्टग्रेजुएट कर लें। तो विश्वविद्यालय में ही लेक्चरार बन सकते हैं। यूनिवेर्सिटी की स्कालरशिप के बारे में उन्होंने पता किया।
रजनीशजी से कहा कि “मैंने तुम्हारे लिए युनिवेर्सिटी की स्कालरशिप पता किया है।
मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ वाइसचांसलर के पास चलो। वह फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष होकर जाने वाले हैं।
हाँ, किन्तु तुम उनसे ज्यादा बातें मत करना।
वाइसचान्सलर के पास गये और उनसे रजनीश जी को मिलवाया।
वाइसचान्सलर जी ने रजनीश को देखा; और पूछा यह दाढी क्यों बढ़ा राखी है?
रजनीश चुप रहे। जवाब नहीं दिया।
वाइसचान्सलर जी ने आदेश पर दस्तखत करते हुए फिर पूछा।
रजनीश जी चुप ही रहे।
वाइसचान्सलर जी ने उनकी तरफ देखा।
वे रजनीश जी के उत्तर का इंतज़ार करते लगे।
रजनीश जी को जवाब देना ज़रूरी हो गया।
विभागाध्यक्ष से अनुमति ली। और बोले,
“मेरे मन में यह प्रश्न हमेशा रहा है, “लोग दाढ़ी क्यों बनाते हैं?”
दाढ़ी बढ़ती गयी मैंने उसे बढ़ने दिया।
मेरे मन में यह प्रश्न हमेशा रहा कि ‘लोग दाढ़ी क्यों बनाते हैं?’
जो लोग उसे काट लेते हैं, या हजामत बना लेते हैं!
वे ऐसा क्यों करते हैं।
मैंने कई लोगों से पूछा भी, कि वे इसे हटा क्यों देते हैं!”
सर आपने भी दाढ़ी हटा दी है।
ऐसा किस लिए किया है?”
वाइसचांसलर क्या कहते!
दस्तखत हो चुके थे। उठने लगे।
और कह दिया फिर कभी आना।
“ सर, कल आऊँ?”
“फिर कभी आना, तो सोचकर बताना पड़ेगा।
कल ही नहीं।
फिर कभी।
“अगले हफ्ते?”
अरे भाई बता देंगे।
सोचना पडेगा।
“दो हफ्ते बाद आऊँ, सर ?”
उन्होंने हाँ, कह दिया।
वह पहुँच गए दूसरे हफ्ते?
इस बीच वाइसचांसलर जी फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बना दिए गए।
रजनीश जी को उत्तर नहीं मिला।
पर युनिवेर्सिटी का वह वजीफा मिल गया।
और रजनीश जी फिलासफी में एम.ए. करने के बाद जबलपुर के महाकोशल महाविद्यालय के दर्शन विभाग में व्याख्याता बनकर आ गए।
जबलपुर में भंवरताल पार्क के सामने किन्हीं जैन साहब के घर रहते थे।
घर मैंने दूर से ही देखा था।
१९६४ में मैं जबलपुर कलानिकेतन में केमेस्ट्री के व्याख्याता पद पर नियुक्त होकर अस्थायी तौर पर वहीं होस्टल में रहने लगा था।
१९६५-६६ में गणेशोत्सव के अवसर पर उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। तो मैंने भी उनका भाषण सुना।
पहले तो रजनीश जी ने सबसे शांति बनाये रखने का निवेदन किया।
फिर जिन माताओं के बच्चे छोटे हैं, उन माताओं से अनुरोध किया वे बच्चों को लेकर भाषण सुनने न बैठें।
संयोगवश वहां ऐसी कोई माँ नहीं थीं जिनका बच्चा बहुत छोटा हो भाषण के बीच किसी भी प्रकार का व्यवधान पसंद नहीं करते थे।
फिर उन्होंने हाथ जोड़ा और कहा, “मैं आप सबके हृदय में विद्यमान परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ।
और अपना भाषण प्रारम्भ किया।
अमेरिका में मिल्टन राईट एक पादरी थे।
उनके लड़के विल्वर और ओर्विल ने जब पक्षियों को उड़ते देखा तो सोचा,
वे एक ऐसी मशीन बनायेंगे, जो पक्षियों की तरह हवा में उड़ सके। पादरी पिता ने उन्हें मना किया। बताया बाइबिल में लिखा है, हवा में केवल पक्षी उड़ सकेंगे, अन्य कुछ नहीं।
परन्तु उनके दोनों बेटे अपने सपने को साकार करने में लगे रहे।
आज हम उनके सपने के स्वरूप हवा में उड़ते हवाई जहाज देख रहे हैं।
तो पहला सन्देश है, यह है कि सपने देख्नना मत छोड़ो; सपना देखो और उसे पूरा करो।पर देखने भर से सपना पूरा नहीं होगा। उसे पूरा करने की लिए पूरे मन और लगन से भिड़ जाओ।
उन्होंने कहा, एक चित्रकार था। वह एक भव्य, मास्टर-पीस चित्र बनाना चाहता था। उसने ईज़ल(स्टैंड) पर क्लिप से कागज़ लगा लिया। चार-छह रंगों की डिबियें लाकर रख लीं। चार-छः कूचियें भी रख लीं।
बैठ कर मन में कल्पना बनाने लगा।
वह मास्टर-पीस बनाना चाहता था।
बैठ कर बहुत देर तक सोचता रहता,
क्या कैसा बनाएगा!
यह चित्र उसके बनाए सभी चित्रों से बेहतर होगा।
बैठता, सोचता, ताने-बाने बुनता। क्या-कैसा करेगा।
फिर उठ कर चला जाता।
दूसरे दिन आता और फिर सोचता।
सोचता रहता।
रंग रखे थे, कूची रखीं थीं।
वह रोज़ आता; मास्टर-पीस बनाने सोचता।
सोचता रहता और फिर उठकर चला जाता।
दिन बीतते गये।
आता, सोचता, कल्पना करता।
रोज़ यही करता।
कूची नहीं उठाई।
रंग में नहीं डुबोई।
ईज़ल में कागज़ लगा रहा।
रोज़ का यही किस्सा हो गया।
कभी कूची रंग में नहीं डुबोई।
कागज़ पर कोइ नशान नहीं बना।
दिन पर दिन बीतते गए।
चित्र बनना शुरू नहीं हुआ।
मास्टर पीस चित्र नहीं बनना था।
नहीं बना।
सपना देखो। तैयारी करो।
विचार करो।और काम शुरू करो।
तभी पूरा होगा।
फिर उन्होंने एक कहानी बताई।
जोंसी और सुई दो सहेलियां साथ में रहा करती थीं। अलग अलग दफ्तरों में काम करतीं और शाम लौटकर कुछ आराम करतीं. नाश्ता करती। जहां जातीं साथ जातीं। बाज़ार हो या सिनेमा; साथ ही रहतीं।
सुई थोड़ी नाजुक थी। बरसात के दिन थे। उसे सर्दी हो गयी। ध्यान नहीं दिया ऑफिस जाती रही। पानी के दिन थे। हवा भी चलती थी। सर्दी बढ़ी तो बुखार भी हो आया। ऑफिस आती जाती रही एक दिन बुखार आ गया। उठना बैठना मुश्किल हो गया। छुट्टी ले ली।
अब जोंसी को भी काम बढ़ गया। कुछ दिन तो उसने काम चलाया।
तो फिर डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने दवा दी। कभी दवा खाती कभी नहीं खाती। जोंसी आती तो काम में लग जाती। खाना बनाती। उसे दवा देती। खाना खिलाती। पर सुई अब उदास रहने लगी थी। यही सोचती रहती की अब वह नहीं बचेगी।
जोंसी ऑफिस चली जाती। लौटकर पाती की न तो सुई ने खाना खाया होता। न ही दवा ली होती। उसे प्यार से खिलाती। दवा देती। पर खाना वह छूती भी नहीं। दवा कभी खा लेती थी। कभी भूल जाती थी।
जोंसी ऑफिस से लौटकर आती तो सुई को खिड़की के बाहर बिसूरता पाती। एक दिन उसके पास लेटी। तो उसे सुई ने बाहर की दीवार पर बेल को दिखाकर जोंसी से कहा। रोज़ इस बेल की पत्तियां झर रही हैं। अब आज तो गिनती की ग्यारह बची हैं।
मेरी तबीयत तो ज़रा भी नहीं सुधर रही। न खाने का मन होता है न ही भूख लगती है। इस बेल की पत्तियों की तरह मेरे भी गिनती के दिन बचे हैं। जिस दिन आख़िरी पत्ती गिरेगी मेरी भी जान निकल जायेगी।
जोंसी ने ज़रूर उसे उत्साह दिलाया। पर अन्दर से वह भी हिल गयी। रोज़ वह भी पत्तियों को देखने लगी। अब आज ८ बची हैं। आज ७ हो गयीं।
डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने भी सुई को समझाया। जोंसी से खाना खिलाने कहा। और एक इंजेक्शन लगा कर, ध्यान से दवा खाने की हिदायत देकर चला गया।
क्रमश: अब सुई का बुखार कम रहने लगा। पर उसका फितूर कि आख़िरी पत्ती
गिरने के दिन उसकी जान निकल जायगी, बढ़ता गया।
अब आज तो गज़ब की ठंड थी। एक ही पत्ती बेल में शेष रह गयी थी। हवाएं तेज़ हो चलीं थीं। दो तीन दिनों से उसने ठीक से कुछ खाया भी नहीं था। जोंसी उसे समझा-समझा कर हार गयी थी।
अभी अब नौकरी से घर लौटी तो सुई को बेल की उस आख़िरी पत्ती को बिसूरते पाया।
कुछ थोड़ा समझाया भी की यह केवल मात्र वहम है ! किसी बेल की पत्ती इंसान की ज़िंदगी का क्या सम्बन्ध है!
पर सुई इतनी निराश थी की उसे पक्का लग रहा था; आज रात ज़रूर यह आख़िरी पत्ती भी बेल से झर जायेगी!
और उसके साथ उसकी भी जान निकल जायेगी। वह इतनी उदास दिख थी जैसे वह सुई नहीं उसका भूत हो!
जोंसी सोच रही थी, कि किसी तरह से वह बाज़ार चली जाए और कुछ खाने को ले आये।
वास्तविकता यह थी कि उसे याद आ रहा था, उसके घर से थोड़ी ही दूर एक बूढ़ा पेंटर रहा करता था। वह उससे मिलना चाहती थी।
आज वह भी डर गयी थी।
लौट कर खाना गरम किया। स्वयं खाया और सुई को भी दो कौर जबरदस्ती खिलाया।
फिर वह भी सुई के साथ सो गयी।
रात बहुत बारिश हुयी।
सवेरे जागी तो देखा; सुई भी उठ चुकी थी। और जाग रही थी। दीवाल पर बेल को देखा तो आख़िरी पत्ती गिरी नहीं थी।
दूध लेने बाहर आयी तो सुना बेल वाली दीवार के पास उस बूढ़े पेंटर की लाश पड़ी थी। वहीं पेंट और ब्रश भी छिटके पड़े थे।
यह था उस बूढ़े उस बूढ़े पेंटर का मास्टर-पीस! जो उसने बनाया ही नहीं रात कड़कड़ाती ठण्ड में आकर बेल में लगा भी दिया। जो सुई को बेल में लगी हुयी दिखी।
रजनीश जी से सम्बंधित छुट-पुट घटनाएं :
- जबलपुर में रजनीश जी की पाँच-सात लोगों की एक मित्र-मंडली थी। जिसके दो सदस्यों के नाम मैं जानता था। एक नारायण प्रसाद श्रीवास्तव से मेरा परिचय था। दूसरे का नाम था, कामता सागर। श्रीवास्तव जी रेलवे में थे और वहीं रेलवे क्वार्टर में रहते थे। कामता सागर माडल हायर सेकेंडरी स्कूल में आर्ट टीचर थे। कुछ दिन पहले कामता सागर जी की पत्नी का देहांत हो गया था।
श्रीवास्तव जी ने मुझे बताया की एक दिन रजनीश जी ने मंडली वालों से कहा चलो आज कामता सागर के यहाँ चलें। मित्र मंडली उनके घर पहुँची। तो रजनीश जी ने सीधा सवाल कामता जी से किया; हाल ही आपको एक तीव्र आघात लगा। आपने इस आघात को कला के माध्यम से कैसे व्यक्त किया?
कामता सागर क्या कहते!
तो रजनीश जी ने उससे एक लड़के की कहानी सुनाई:-
एक शहर में एक व्यक्ति को बस दो चीज़ें प्यारी थीं। एक उसकी बूढ़ी माँ। और दूसरा सिनेमा वह छत्तीस साल का हो गया था। पर उसने शादी नहीं की कि माँ बूढ़ी हो गयी। मैं शादी कर लूंगा तो मैं उसका उतना ध्यान नहीं रख पाऊंगा जितना मैं अभी कर सकता हूँ।
अब माँ बीमार हो गयी थी। वह उसकी सेवा में लगा रहता। डॉक्टर के पास जाकर उसका हाल बताता, दवाई लाता। खाना बनाना छूट गया। मा के लिए जो कुछ बनाता वही खा लिया करता। न दिन देखता न रात। डॉक्टर और माँ के ही बीच उसके दिन और रात बीत जाते। डॉक्टर भी ना-उम्मीद हो गए थे।
आखिर कार एक दिन शाम के वक्त माँ सिधार गयीं। निढाल होकर वह बहुत रोया। जब रोते रोते थक गया तो उसे याद आया कि आज उसके पसंदीदा फिल्म का आख़िरी दिन है। कल वह बदल जायेगी।
उसकी दो ही पसंद और दो ही शौक थे पहला माँ की सेवा और दूसरा सिनेमा। माँ तो अब रही नहीं। उसका अंतिम संस्कार होना है। लोगों को बताना होगा, रात तो अब अंतिम संस्कार भी नहीं होगा। क्यों न सिनेमा ही देख लूं!
और वह जल्दी से तैयार होकर सिनेमा देखने चला गया।
इधर आसपास पड़ोसियों ने देखा; इनके घर लाईट तो दिख रही है पर कुछ चहल-पहल दिख नहीं रही। अंदर जा के देखा था तो माँ की लाश पडी है। बेटा दिख नहीं रहा। सोचा किसी काम से गया होगा, इंतज़ाम करने। पाँच सात लोग इकट्ठे हो गए। घंटा हो गया; डेढ़ हो रहा है। कहाँ चला गया बेटा माँ की लाश को छोड़ कर।
लड़के की आने की प्रतीक्षा करने लगे। दस बज गए। चिंता होने लगी!
लड़का १० बजे लौटा।
पता चला कि जनाब सिनेमा देखने चले गए थे। बोले, तुम तो श्रवण कुमार थे। माँ नहीं रही तो लाश को छोड़ कर सिनेमा देखने चले गये !!
कुछ देर तो लड़का चुप रहा पर जब बौछारें बढ़ गयीं। तो बोला:
मेरी प्राथमिकता तो माँ ही थी; इसीलिये जब तक वह थी मैं सिनेमा देखना चाहता पर गया नहीं।
माँ नहीं रहीं तो सोचा आज आख़िरी शो है। अपना पसंदीदा सिनेमा ही देख आऊँ!!
- रजनीश जी स्वभाव से बहुत और सरल थे तथा जहां कुछ बोलने बताने का मौका
मिलता तो उसे कभी मना नहीं करते।
हमारे एक परिचित जबलपुर में पॉटरी में रहते थे। वहां एक पुराने से एक घर में सरकारी रिफोर्मेटरी / रिमांड होम-सा कुछ था।
उसके अधिकारी ने मित्र से किसी वक्ता को बुलाकर बच्चों को नैतिक शिक्षा की बातें बताने के लिए कहा।
तो मित्र ने उन्हें रजनीश जी को आमंत्रित करने का सुझाव दिया।
अधिकारी से दिन व समय पूछकर रजनीश जी को आमंत्रित कर आये मित्र ने उन्हें दिन और समय बताकर उन्हें आमंत्रित कर दिया। रिमांड होम के अधिकारी ने मित्र को भी आमंत्रित किया तथा समय और दिन बता दिया। और रिमांड होम के अधिकारी उन्हें समय पर ले आने का वादा भी कर दिया।
सोचा था निर्धारित समय से कुछ पहले रजनीश जी के पास जाकर उन्हें ले आयेंगे।
किन्तु मित्रवर को यह बात याद नहीं रही। जब उन्होंने रिमांड होम में उनके आगमन हेतु तैयारी देखी तो याद आया।
साइकिल से दौड़े कि जाकर रजनीश जी को ले आयें। थोड़ी ही दूर गए तो देखा रजनीश जी एक रिक्शे में चले आ रहे हैं।
- घनश्याम दास बिड़ला ने भारत के किन्हीं प्रख्यात शहरों में भव्य हिन्दू मंदिर बनवाये। मंदिर तो अत्यंत भव्य बने; नाम में बिड़ला मंदिर कहलाये। इन मंदिरों में सामान्यतया बाहर की सीढ़ी पर बिड़ला जी मूर्ती भी बनी हुईं थीं।
रजनीश जी ने कहा, इनका बस चलता तो बाहर सीढ़ी पर भगवान को खडा रखते अन्दर अपनी मूर्ती लगाते।
रजनीश जी स्वांग के खिलाफ थे।
- जबलपुर में रजनीश जी मदनमहल से आगे पहाड़ियों पर अपने आध्यात्मिक शिविर चलाते थे। लोग अपना भोजन और एकाध जने के लिए और लेकर आते थे। वे शिविर के साधकों को मिल-जुल कर जीने का पाठ सीखना कहते थे।
- जब उनकी ख्याति बढ़ने लगी तो उनकी मांग देश के विभिन्न स्थानों से आने लगी।
पैसे उनके पास नहीं थे। जो लोग स्वयं खर्च उठाने तैयार हों वह वहां जाकर आश्रम स्थापित करने को तैयार थे।
इस सिलसिले में सबसे पहले गुजरात सरकार ने उनके लिए आश्रम की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
उन्होंने अपने प्रवचनों में एक बात गांधी जी के बारे में कह दी। उन्होंने कहा था, जो लोग जितने महान होते हैं उनसे उतनी ही बड़ी भूलें होती हैं। “ गांधी जी महान थे और उनकी भूल भी उतनी ही बड़ी थीं।“
यह बात तत्कालीन कांग्रेसी सरकार कैसे स्वीकार करती! सरकार से उनके पास प्रस्ताव आया कि वे गांधी जी पर अपना मंतव्य वापस ले लें। अन्यथा सरकार के लिए अपना वादा पूरा करना मुश्किल होगा।रजनीश जी ने यह प्रस्ताव मानने से मना कर दिया। इसलिए फिर इनका आश्रम पुणे में खुला।
जब वहां उनके कार्यक्रम पर रोक लगाने की बात उठी तो वह अमेरिका के ओरेगान चले गए। वहां भक्तों ने उन्हें न केवल मान्यता दी अपितु पूरा कम्यून ही बना दिया। फिर वहां भी सरकार कुछ डर गयी तो वह अपनी तमाम गाड़ियां छोड़ कर जो उन्हें भक्तों ने दीं थीं, छोड़ कर वापस आ गए।
वे जीवन की वास्तविकता के पक्षधर थे। उसके आगे कोई धर्म ही क्यों न हो, मान्यता नहीं देते थे।
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Note – Images from Google
Informative blog wonderful to read.
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Thank you, Saroj !
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