आगरा का धमाल-हिन्दी का बवाल

 १९५०-५१ में भारत का संविधान बन चुका था। हिन्दी राज-भाषा बन गयी थी।

आगरा प्रिंटिंग प्रेसों का बादशाह था। बहुत प्रिंटिंग प्रेसें थीं वहां। पुराने मध्यप्रदेश में दो माध्यम स्वीकृत हुए; हिन्दी और मराठी। मराठी तो चली गयी पूना के पास और हिन्दी आयी आगरा के पास। हिन्दी की तो अब तक दो ही प्रेस थीं एक बनारस-कलकत्ता की गीता प्रेस और दूसरी आगरा की। सरिता पत्रिका आगरा में ही छपती थी। और इधर उधर की पत्र पत्रिकाएं बम्बई, और बनारस में छपती थीं।

हम लोग नवमी कक्षा में आ गए थे। सिवनी के मिशन स्कूल में थे। और भाईयों की पढ़ी गयी फटी पुरानी किताबें हमारे नसीब में पड़ती थीं। पास होकर अगली क्लास में जाने का उत्साह ठंडा हो जाता था। नयी किताबें आने से अब हमारा उत्साह बढ़ा।

पर वह भी सीमित ही सिद्ध हुआ। नयी किताबें जो छपकर आयीं व्यापारियों के बीच की स्पर्धा के मारे त्रुटियों से भरी हुईं। भौतिकी में ताप का एक समीकरण था, MST=M1S1T1=M2S2T2. इसका पर्याय तो ढूंढा नहीं गया था, हिन्दी की कम्पोजिंग करने वालों को इसे सम्हालते नहीं बना; MST=M1S2T3=M2S3T2 हो गया।

 सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। ताप का समीकरण पढ़ रहे हैं। सर कुछ बता रहे हैं। नयी किताब वाला उठ कर बोलता है सर, हमारी किताब में अलग लिखा है। सर लड़कों की एक दो किताबें लेकर देखते हैं। थके हैं कुछ बताना चाह रहे थे। इस विवाद में फंस गए हैं। तुम्हारी कौनसी किताब है? देखो ज़रा। किस साल का प्रकाशन है? चार पाँच किताबें इकट्ठी हो गयीं। तमाम भ्रम फ़ैल गया। एक ही प्रकाशक की दो अलग-अलग साल में प्रकाशित किताबों में अंतर हो गया था।

सर पूछ रहे हैं, किस साल का प्रकाशन है?

देखो ज़रा। किताब का नाम क्या है?

सर ‘भौतिकी’। सर मेरी किताब में ठीक दिया है; दोनों एक साल की हैं। नाम अलग है सर, भौतिक शास्त्र। प्रकाशक भी वही है।

यही हाल केमिस्ट्री की किताबों में है। किताबों के नाम ही भिन्न हैं; कोई रसायन है तो कोई रसायन शास्त्र या रसायनिकी।

थके हुए मास्साब साढ़े दस से दो क्लास ले कर आये हुए हैं। दस मिनट की छुट्टी में आके बैठे तो किताब बेचने वाले एजेंट आ गए। दो किताबें दे गए। सर विशुद्ध है एक गलती नहीं है। जो किताब पहले इन्हीं की गलतियों से भरी पड़ी थी रसायन नाम की। अब उसे रसायन शास्त्र से छपा के लाये हैं।

 पहले की फिजिक्स अंग्रेज़ी की विलोज़ की चलती थी, उसी से मास्साब पढ़ाते थे सालों से चल रही थी; एक गलती नहीं थी।

गनीमत थी चक्रवर्ती की ही अंक गणित अभी भी चल रही थी। उसमें हिन्दी में लिखी इबारतें भी स्पष्ट थी और अंक भी सही लिखे थे।

बाद में ज़रूर नये ढंग के सवाल के बहाने से एक बहुत मोटी किताब तेजराम की गणित आ गयी थी। इतनी मोटी थी की लड़कों के बस्ते में उसे रख लो तो और कोई किताब नहीं रख पाते थे। जिन लड़कों ने उसे खरीदा था खुद को पढ़न्ता दिखाने के लिए हाथ में अलग से रख कर लाते थे। हमारी तो पुरानी  चक्रवर्ती की ही ठीक थी। सर भी उसी से लड़कों की एक कतार से १-३-५  और दूसरी कतार से २-४-६ सवाल करके लाने बोल देते थे। हमारा भी होमवर्क कम हो जाता था और पूरी क्लास को कठिन सवाल का पता चल जाता था।

मुश्किल थी तो उन लड़कों को जो हायर मैथ्स-साइंस ग्रुप ज्वाइन करना चाहते थे। स्कूल में उर्दू मीडियम नहीं था। हिन्दी मीडियम का यह झमेला था। तो हमारे साइंस टीचर यह सब भी अपने सिर नहीं लेना चाहते थे।

ऐसे जो भी लड़के होते थे उन्हें सर बहुत सावधान और कहें तो हतोत्साहित कर देते थे। साफ़ कह देते थे वे स्वयं अपनी व्यवस्था कर सकें तो हायर मैथ्स और साइंस लें। वह न तो इतनी उर्दू ही जानते हैं न ही सोचते हैं की उर्दू में साइंस की किताबें मिलेंगी या नहीं।

शुरुआती आठ दस क्लासें तो इसी में चली जातीं। हिन्दी वालों को भी वह पूछा करते कि किस उद्देश्य से वे हायर मैथ्स साइंस लेना चाहते हैं?

आगरा की यह किताबों ने रही सही कमी भी पूरी कर दी। ऐसा हो नहीं सकता था कि हिन्दी की किताबों में रोज़ दो चार गलतियाँ न निकलें।

फिर एक ही प्रकाशक तरह तरह के नामों से वही किताब छाप रहे थे। दीवाली की छुट्टियों तक तो लड़के तय नहीं कर पाते कि कौन सी किताब खरीदें।

कुछ तो इसी झमेले में, थक कर हायर मैथ्स का सपना छोड़ गए।

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परिशिष्ट: मैं स्वयं १९६४ से जबलपुर के कलानिकेतन में केमिस्ट्री पढ़ा रहा था। १९८४-८५ में कलाविभाग के हेड ऑफ थे डिपार्टमेंट को प्राचार्य के रूप में काम करना पड़ रहा था। उन्होंने मेरे पास हिन्दी में छपी केमिस्ट्री की दो किताबें देखने के लिए भेजीं, कि इन्हें लायब्रेरी के लिए खरीदा जा सकता है, या नहीं। मैंने लिखा कि यह किताबें रद्दी के भाव में भी खरीदने के लायक नहीं हैं।

कुछ दिनों बाद मैंने देखा, कि इस कचड़े की अनेक प्रतियां खरीद कर भेज दी गयीं हैं। मैंने कार्यकारी प्राचार्य से पूछा कि आपने मेरी राय संचालक को नहीं भेजी थी क्या? उन्होंने कहा, उसके बावजूद यह किताबें खरीद कर भेज दी गयीं हैं!

 मुझे लाइब्रेरियन को कहना पड़ा कि केमिस्ट्री की यह किताबें ऐसी जगह पे छिपा कर रखें जहां कोई भी छात्र लेकर न पढ़े।

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