तीन शादियाँ – तीन रंग

हमारे पिता जी १९२८ से सिवनी जिले में वकालत कर रहे थे। और अच्छे वकीलों में गिने जाते थे। ज़माना ज़मींदारी का था। बरघाट और सिवनी के बहुत से मालगुजार पिताजी के मुवक्किल थे। गावों में ज़मीन जायदाद और मार-पीट के सिविल और फौजदारी दोनों तरह के बहुत मामले हुआ करते थे। पिताजी की वकालत अच्छी चलती थी। चाचा चाची सहित हम लोगों का बड़ा परिवार था।

अतएव पिताजी नकद और अनाज दोनों प्रकार से फीस स्वीकार कर लेते थे। अनेक ज़मींदारों से हमारे सम्बन्ध पारिवार जैसे ही बन गए थे। कभी वे दाल चावल आदि अनाज ले आते। और हमारे घर से शक्कर वगैरह ले जाते।

जब कभी उनके परिवारों में शादी ब्याह होते, तो हमें भी न्योता मिलता। सिविल केसों में कभी-कभी नक्शों से काम नहीं चलता, गाँव जाकर मुआयना करना पड़ता।

कुछ सिवनी के लोगों के भी गाँव थे।

ऐसे ही एक नंदकिशोर भैया के गाँव हमें सब लड़कों को बरात में जाना पड़ा। नन्द किशोर भैया का कोई गाँव था। उसमें मुझे याद है, हम पाँच लड़कों को भी गाँव की शादी में जाने का मौका मिला। मैं तीसरे नंबर का सबसे छोटा था। दो चचेरे भाई थे और तीन भाई हम लोग।

शादी में स्वागत सत्कार से हम बच्चे भी बहुत खुश थे। मैं इतना छोटा था कि शादी की तो हल्की सी ही याद है। इतना पक्का याद है, हम बच्चों को दुल्हा-दुल्हन के पास ले जाकर दिखा दिया गया था।

हमें तो खाना खाते ही नींद आने लगी।

बताया गया, बाहर मैदान में जाजिमें बिछा दी गयीं है; जिसको जहां सोना है जाकर  सो जाय।

बाहर जहां मैदान में दरी, तड़े और जाजिम व चादर बिछे हुए थे। पर ज़मीन ऊंची  नीची ढाल वाली थी।

हमें तो खाना खाते ही नींद आने लगी। आँखे अपने आप मुंदी जा रहीं थीं। दिन भर के थके थे।

जिसको जहां जगह मिली सो गए।  

रात में बड़े लोग भी आकर सोये होंगे।

आधी रात हडकंप-सा मचा हुआ था।

बच्चों को उठाया जा रहा था। कुछ बड़े लोग भी उठकर खड़े हुए थे।

इधर उधर लोगों को खिसकाया जा रहा था।

और कहीं पानी डाल कर धोया जा रहा था।

हम जहां भी जाते पानी लुढ़क आता। बार बार इधर से उधर नींद में गिर पड़ते।

गहरी नींद में थे।

हम उठना नहीं चाहते थे।

आवाज़ सुनते तो थोड़ा यहाँ से वहां सरक जाते।

जहां जाते वहां से फिर उठना पड़ता।

बड़ों में से कुछ लोगों ने भांग पी ली होगी।

उल्टियां कर रहे थे। और बेहोश से पड़े थे।

हडकंप सा मचा हुआ था।

कुछ लोग उल्टियों में पड़े लोगों को सरका कर जाजिम, चादर वगैरह को पानी दाल कर धो रहे थे।

हम लोग को उठा उठा कर दूर सुलाया जा रहा था। हम लोगों को तो नींद की बेहोशी चढी थी।

पर उल्टी और पानी बह-बह कर हमें भिंगोता जाता था।

आखिरकार तमाम जाजिमें और चादर भीग चुके थे।

हम लोग नींद में जाकर दूर जगह निखर्री ज़मीन में सो गए।

सुबह उठे तो कच्ची नींद में जाग जाने का गुस्सा भरा था।

दूध, चाय हम कुछ खाने पीने को तैयार नहीं थे।

भुनसारे ही गाड़ी न ही गई।

तो उसमें जाके बैठ गए।

हमारी जिद से गाड़ी रवाना की गयी।

डेढ़ दो बजे दोपहर घर पहुँच पाए।

आये और आकर सो गए।    

२. दूसरी शादी:

हम थोड़े और बड़े हो गए थे।

बडवानी गाँव की शादी में गए।

दलसागर तालाब के उस पार नार्मल स्कूल की लाल ईंटों वाली बड़ी सी बिल्डिंग थी, जिसमें नार्मल स्कूल लगता था।

पुराने मध्य प्रदेश में तीन जगह नार्मल स्कूल थे। जिनमें शायद शिक्षकों की ट्रेनिंग दी जाती थी।

एक सिवनी में था, एक जबलपुर में और एक बैतूल में।

अब तो सिवनी वाले स्कूल में सिवनी का सरकारी कालेज लगता है।

यह भैरों गंज के और आगे चले जाओ तो बडवानी; या शायद मुंग्वानी गाँव पड़ता है।

हम लोग यहाँ भी एक शादी में गए।

शादी वाले घर में सामने को आँगन के बाद घर की पार भी बनी हुयी थी।

उस पार को पतंग के झिल्ली कागज़ के फूल, पत्ते  बांस की पतली कमचियों में चिपका कर लगाया गया था।

सुन्दर झांकी सी बन गयी थी। और हमें तो बहुत अच्छी लगी।

शादी दिन की थी। हम लगभग ११ बजे दिन में वहां पहुँच गए थे। शादी का तो याद नहीं कैसी हुयी। खाने का वक्त हुआ तो हमसे कहा गया, जो यह पूड़ी शुद्ध घी में तली गयी हैं, अगर मींज दें तो हम इन्हें फिर से गूँथवा कर आप लोगों के लिए पूड़ी तल देंगे।

यदि आप नहीं करते, तो यहाँ भी दो एक ब्राह्मण हैं; उनसे मीन्जवा कर हम लोग भी पंडित हैं, पूड़ी तल देंगे।

हम समझ नहीं पाए कि बनी बनाई पूड़ियों को मींजकर और फिर सान कर पूड़ी ही बनाने का क्या मतलब है!

हम क्यों दोबारा अपने लिए पूड़ी सिकवायें?

यह जो पूड़ी बनी हई हैं,

क्या हम उन्हें नहीं खा सकते!

फिर समझ में आया कि उन्होंने आंटे को खुद सान कर बनाया है, तो हमारा खाना ‘सकरा’ हो गया है।

अगर पकी पकाई पूड़ी को फिर सान कर फिर पूड़ी बनेगी तो खाना सकरा नहीं कहलायेगा।  ‘सकरे’ का दोष निकल जाएगा।

हम लोगों ने पिता जी को बताया तो उन्होंने उनकी बनायी हुयी पूड़ी खाने में कोई दोष नहीं देखा। हम लोगों ने उनकी बनायी गयी पूडियां ही खाईं।

और खाना खाकर लौट आये।

शादी तो शाम की थी।

***

3. तीसरी शादी

और अब तीसरी शादी जो मैंने नवमी क्लास में होने पर इलाहबाद के पास के एक गाँव में अटैंड की थी।

 शादी हमारी बड़ी मौसी के बड़े बेटे हरसरन दादा की थी।

मौसा जी शायद पोस्ट आफिस में थे। और अब रिटायर हो चुके थे।

उनकी तीन लड़कियाँ और दो बेटे थे। एक थे हरसन दादा जिनकी शादी हो रही थी।  

और उनसे छोटा, विनोद। जो मेरी उम्र का था।

मौसी पाँच बहनों में सबसे बड़ी थीं।

उनके घर लड़के की पहली शादी थी।

इस लिए हम मध्यप्रदेश के सिवनी से इलाहबाद गए थे।

मैंने अपनी तैयारी में, हाफपेंट में छह पैसे में आयरन करवा लिया था। फुल पेंट होता तो दो आने लगते।

मौसा जी ‘कटरा’ में रहते थे।

उनके छोटे भाई चौक में।

वह हाईकोर्ट में वकील थे। उनका भी घर किराए का था। पर बड़ा था, हालांकि वह  भी पहली मजिल पे था।

उनके घर का अट्रेक्शन यह भी था कि घर में बहुत बड़े इलाके में जाली लगी हुयी थी। जिसके अन्दर पैराकीट्स से भी छोटी, खूब सारी प्यारी सी मुनियाँ रहती थीं।इन मौसिया जी का एक लड़का था; और दो लड़कियां।

उस हिसाब से घर काफी बड़ा था।

मुझे याद नहीं है, कि मैं जूता पहन कर गया था; या सैंडल! पर यह याद है कि बड़े मौसिया जी के घर में एक बड़ी सी लकड़ी की संदूक थी। जो उन्हें बहुत पसंद थी। उस पर केवल उनका अधिकार था। उसमें वह जो जैसा सामान रखाना चाहे सम्हाल के रख लेते, और मांगे जाने पर उसे चाबी से खोल कर दे दिया करते।

उन्होंने विनोद के शादी में जाने के लिए एक जोड़ी चमड़े के जूते खरीदे थे। और उन्हें भी डब्बे सहित रखने के लिए उसी पेटी में जगह निकाल ली थी।

 जब शादी के बाद बरात लौट आयी, तो उन्होंने विनोद से जूते मांग कर पोंछा और उसी पेटी में रख लिया।

हाँ, बरात में मैं भी गया था।

वकील मौसिया के पास एक छोटा डिब्बा सा ट्रांजिस्टर आ गया था। यह शायद १९४९-५० की बात है। मौसा जी उसे भी लेते आये थे। उसमें बैटरी सैल लगते थे। और रिसेप्शन सही रखने के लिए एक पतला सा लंबा तार भी रख लिया था।

शादी वाले गाँव गए तो जनवासे के सामने, इस ओर से उस पार तक एक रस्सी बंधी हुयी थी। बरात गाँव पहुँची तो हम लोग का सारा ध्यान उसी ट्रांजिस्टर पर रहा आया। इतना याद है, कि वह एक बड़ा कुतूहल बना था।

हाँ, कभी तो स्टेशन पकड़ लेता था। कभी कोशिश करनी पड़ती थी।

यह अच्छा था कि था, कि वह तार भी साथ आया था।

तार ज़मीन पर गिर जाए तो स्टेशन हट जाता था।

इसलिए मैं उसे उस रस्सी पर डाल दूं तो, आवाज़ बेहतर हो जाती थी।

पर थी चीज़ लोगों के लिए अजूबा ही।

गाँव वालों का सारा ध्यान इस ट्रांजिस्टर पर ही बना रहता।

आवाज़ आ जाती तो बच्चे तो बच्चे, बड़े भी पुलकित हो जाते।

शादी कैसी हुयी मैं देख ही नहीं पाया।

मैं तो बस उस तार का ही इन-चार्ज बना रहा।

घर लौटने पर जब अम्मा ने पूछा शादी कैसी लगी, मैं कुछ बता नहीं पाया।

मुंह-दिखाई की रस्म में जो महिलाएं दुल्हन का मुंह देखतीं हाथ में कोई जेवर देतीं; कोई

पैसे ही हाथ में रख देतीं।

अम्मा ने भी मुंह देखा और मुझे भी दिखाया। क्या दिया मुझे याद नहीं।

भाभी ने मेरे हाथ में कुछ पैसे रखे थे, यह याद है।

 इस तरह तीन रंगों की थीं, ये तीन शादियाँ!

 ……                     

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