समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ
मन मेरा बढ़ता है, निरखता
बीते हुए रिक्त अंतराल को.
विचरते मार्ग से उस विशाल रिक्ति के
उभरते हैं चित्र मेरी आँखों के आगे.
निसर्ग से व्यक्ति तक…
समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ
मन मेरा बढ़ता है, निरखता
बीते हुए रिक्त अंतराल को.
विचरते मार्ग से उस विशाल रिक्ति के
उभरते हैं चित्र मेरी आँखों के आगे.
मैंने प्यार किया है तुझे सदा सहस्रों रूपों में
और कालों में,
हर युग में, जन्म के पश्चात् हर जन्म में.
माला गीतों की जो मेरे पूजक हृदय ने
बुनी थी ,
Continue reading “मैंने प्यार किया है तुझे सदा सहस्रों रूपों में …..”
आज दुनिया में कितना विरोधाभास भर गया है. एक तरफ है,शांति और सौष्ठव का प्रयास।
तो दूसरी ओर है उसे ही नष्ट करने की भयंकर भंगिमा!
रण-नाद बज रहे हैं.
नर बना लेते है अपनी आकृतियाँ विद्र्रूप
और पीसते हैं अपने दांत;
पहले दौड़ने के, समेटने कच्चा
एक स्त्री को मजदूर बनाकर काम पर लगा दिया गया है और वह बहुत आनंद के साथ इस काम का निर्वहन कर रही है; वैसे ही जैसे वह अपने परिवार के पालन पोषण के लिए प्रफुल्लचित्त काम किया करती है !
बारजे पर बैठे हुए ऐसी काम करनेवाली स्त्री को देखकर कवि का हृदय दयार्द्र हो उठता है !
देखिये फिर क्या होता है –
वह संथाल स्त्री दौड़ती है नीचे और ऊपर
उस कंकरीले पथ पर नीचे शिमूल
रिचर्ड फाइनमेन इस सदी के मूर्धन्य वैज्ञानिक हुए हैं !
एक बार उनसे विज्ञान के सामाजिक दायित्व के विषय में पूछा गया !
उनका उत्तर इस विषय पर बड़ा स्पष्ट और मार्मिक था ! उन्होंने कहा, सामाजिक समस्यायें वैज्ञानिकों के लिए उतनी ही दुरूह हैं, जितनी सामान्यजनों के लिए वैज्ञानिक गुत्थियाँ !
Continue reading “परमाणु-संचय, चेतना-युत; जिज्ञासु पदार्थ !”
मुझे लगा, मैं उससे कुछ कहना चाहता हूँ.
जब हमारे नेत्र मिले राह पर.
किन्तु वह चली गयी, और वह डोलती है दिन
वह कौन सी तान है जो आप्लावित करती है
मेरा जीवन, केवल मैं जानता हूँ और मेरा हृदय
जानता है.
मैं क्यों निरखता हूँ और क्यों बाँट जोहता हूँ
क्या माँगता हूँ और किससे, केवल मैं जानता हूँ
और मेरा हृदय जनता है.