सरजू मास्टर ने घर बनवाया

सूरज प्रसाद निगम १९५१ में सिवनी जिले के किसी गाँव के स्कूल में हैड मास्टर थे. रहते सिवनी के गढ़ी मोहल्ले में थे. स्वयं तीसरी हिन्दी तक पढ़े थे. जिन दिनों स्कूल लगता गाँव में रहते छुट्टियों में घर आ जाते. जो कि अक्सर महीने भर के लिए दीवाली की होती थी. माता पिता की मृत्यु बचपन में ही हो चुकी थी. रिश्ते को एक चचेरी चाची थीं. जिनका एक घर गाँव में ही था और एक और सिवनी में.

पहले स्कूलों के आस पास छुट्टी के वक्त बच्चों को पिपरमेंट की गोलियाँ और ऐसी चीज़ें बेंचा करते थे. रहने को चाची ने उन्हें परछी में जगह दे दी थी. कभी कभी चाची के गाँव से शुद्ध घी खरीद कर लाते और कुछ मुनाफा ले कर शहर में बेंचा करते थे.

किसी तरह उन्हें गाँव के स्कूल में नौकरी मिल गयी थी; और अब वे हैडमास्टर हो गए थे. मुझे नहीं लगता कि पढ़ाई लिखाई से उनका ज़रा भी कोई नाता था. एक बार सतीश ने जो तीसरी कक्षा में पढता था, मुझसे ‘परस्पर’ का अर्थ पूछा. मैं उत्तर दूं इससे पहले मास्साब ने अपनी बुद्धि दिखाई बोले परस्पर माने “खेलकूद”. मैंने सतीश को इशारा किया कि मैं मास्साब के जाने के बाद सही अर्थ बता दूंगा. तब के ज़माने में हम बच्चों में बड़ों के सामने अपनी विद्वता दिखाने का रिवाज़ नहीं था.

पर मास्टर साहब की व्यावहारिक बुद्धि उनके ज्ञान से अधिक प्रखर थी. वह समझ गए कुछ गलती हो गयी है उनसे. बाद में उन्होंने बब्बू चाचा से शिकायत की कि रमेश बच्चों में मेरी हंसी उड़ाता है.

सो मेरी पेशी हुई चाचा के सामने. मैंने उन्हें बताया कि वे बच्चों को परस्पर के मायने खेलकूद बताते हैं. बब्बू चाचा ने आवाज़ देकर सरजू मास्टर को बुलाया और सबके सामने पूछा, परस्पर माने? मास्टर साहब ने तपाक से जवाब दिया, “खेलकूद और क्या!”

फिर किसी ने उनसे कभी कुछ नहीं पूछा.

पर मास्साब अपना ज्ञान बताने से बाज़ नहीं आये. जब मौका मिलता अंग्रेज़ी झाड़ने लगते. “क्यों गिरीश कल ‘नाईट’ में ‘लाईट’ नहीं थी?”

हाँ भैया, नहीं थी.

“तुम लोग ‘डे’ में तो फिकर नहीं करते, ‘नाईट’ में परेशान होते हो !”

मैं शायद पहली कक्षा में था. तो मुझसे पूछा, “तुम को ‘होमवर्क’ नहीं मिलता?”

एक बार मुझसे पूछा, “क्यों गढ़ी कुएं में कितने ‘हैंड्स’ ‘रोप’ लगती है?”

हाँ, लेकिन दीवाली की छुट्टी में मोहल्ले में ‘झंडी-मुंडी’ खिलाया करते थे. झंडी-मुंडी कसीनों में खिलाये जाने वाले जुए के खेल जैसा होता है. उन्होंने एक बड़े से गत्ते को वृत्ताकार काट कर यहाँ वहां से अनेक तरह के रंगीन-चित्र काट कर वृताकार ढंग से उसपर चिपका लिए थे.

लोग इन चित्रों पर पैसे रखा करते थे. जब सब चित्रों पर इस तरह से पैसे लगा दिए जाते वह हाथ में लेकर पांसे फेकते थे. जिस जिसका चित्र आ गया उसको दुगना पैसा दे दिया जाता. बाकी सारा मास्साब की जेब में. सो मास्साब हमेशा फायदे में रहते.

अनेक बार बहस भी हुआ करती, कि ऐसा पांसा फेंका या वैसा पांसा फेंका. छोटा मोटा झगड़ा मास्साब निपटा लेते थे.

कभी कभी हारे हुए लोग अचानक आकर बोलते, ‘पुलीस’! और मास्साब सब कुछ समेट का घर के अंदर ! तब फिर असल झगड़ा होता.

समय बीता. चाची की मृत्यु हो गयी. चाची ज़मीन जायदाद सब कुछ सरजू मास्साब के नाम लिख गयीं.

मास्साब ने गाँव की ज़मीन बेंच दी. अब हाथ में पैसे आये तो हसरतों की कोंपलें फूट पडीं. मास्टर साहेब में कुंवर लाल से बात की. चूना सीमेंट का भाव लिया.

ईंटे गिरने लगीं.

मिस्त्री कुंवर लाल को ठेकेदार व आर्किटेक्ट का मिला जुला काम दे दिया गया.

और हम लोगों ने देखा, जो उनका चालीस-पैतालीस फुट लम्बा और १८-२० फुट चौड़ा जमीन का टुकड़ा घरों के बीच खाली पड़ा था. उसमें नींव खुदने लगी.

मजदूरों की फौज खड़ी हो गयी.

दो चार बेलदार(पुरुष मजदूर) खुदाई करते और

चार छह रेजा (स्त्री मजदूर) सर पे टोकरियाँ लेकर इधर उधर घूमती फिरती दिखने लगीं.

मास्साब ने एक कुर्सी, टेबल बनवा ली.

बनते घर सामने बैठकर रजिस्टर में सब कारीगरों, बेलदार और रेजा के नाम लिखकर हाजिरी लगने लगी.

यह काम दिन में दो बार हुआ करता था.

सुबह आने पर पहली जून की हाजिरी लगती,

फिर दोपहर दूसरी पारी शुरू होने पर दूसरी जून की. ऐसा इसलिए ज़रूरी था क्योंकि कोई मजदूर अगर दूसरी पाली में नहीं आया तो उसको आधे दिन की मजदूरी मिलेगी.

बीच-बीच में उठ कर मास्साब काम की निगरानी करने जाते. वहाँ कोई बेलदार बीडी की तलाश में है तो बीडी सुलभ कराते.

माचिस लेकर दूसरे की सुलगाते.

फिर इस तरफ निकल आते जहां रेजा कुएं की तरफ जातीं.

कोई-कोई पानी पीने के लिए भी आतीं. कभी कभार कुछ देर बैठ भी जातीं.

यह सब मास्साब की निगाह में आया. तो उन्होंने एक नायाब युक्ति निकाली.

एक रेजा को काम दिया गया कि कुएं से पानी खींचे और ले जाकर काम में लगे लोगों बेलदारों, मिस्त्रियों और अन्य रेजाओं को पिलाए.

काम सुचारू चलने लगा. घर की डिजाइन रोज़ बनती और रोज़ बदलती.

घर बनना शुरू हुआ तो विचार था, जमीन की एक ओर किराए से उठाने के लिए एक के पीछे एक बैठक का कमरा, रहने का कमरा, गुसलखाना और किचिन और उसके पीछे स्टोर व लेट्रीन बनेगी. दूसरी ओर को ज़मीन की जो पट्टी बचेगी उसमें, मास्साब का छोटा परिवार था; पति पत्नी और एक बेटा, छोटे पर लम्बे कमरे बन जायेंगे.

उसमें छोटे भी बने तो मालिक के रहने के लिए पर्याप्त हो जाएगा. पर मुश्किल तब आयी जब कमरे बने तो संकरी पट्टी में ढंग से कमरे निकालना मुश्किल हो गया. अनुमानत: सामने चौडाई में ज़मीन २० फुट थी. और पीछे १५ फुट.लम्बाई में तो कुल ३८ -४० फुट हो जाती थी.

कुछ कमरे छोटे, बड़े तो ठीक बन गए. बगल में उत्तर की तरफ खिड़कियाँ भी निकल गयीं. पर दूसरी तरफ की ज़मीन रैंच में थी. इस तरफ मास्साब के परिवार के लिए व्यवस्था होनी थी. उनके लिए पहला कमरा लंबा सा बना. दूसरा उससे छोटा भी बन गया. उसके बाद बाद जो कमरा गुसलखाना और उसके बाद पखाने का बनना था, उनके लिए जो जगह बची वह पीछे बहुत सकरी होती गयी.

यह दूसरा कमरा जो रसोई घर बनना था वह लम्बाई में कम और चौड़ाई में थोड़ा ज्यादा बना. वहां से एक पट्टी गली सरीखी बची जिसे पीछे के गुसलखाने और पखाना जाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था. सो किया गया.

किन्तु आखिर का पखाना तो चौरस बना; पर गुसलखाना अजीबोगरीब शकल का बन पाया. इसलिए निदान स्वरूप एक और छोटा सा कमरा काट दिया गया.

पर एक समस्या फिर भी रह गयी, कि गुसलखाना अब पूरा अँधेरा हो गया.

अत: उस छोटे कमरे की जो दीवाल गुसलखाने की तरफ पड़ती थी, उसे ऊपर छत तक न उठा कर डेढ़ फुट नीचे रखा गया.

तो अब एक कमरा और उसके लगकर चारों तरफ से बंद छोटे कमरे को मिलाकर एक जुड़वां कमरा गुसलखाना बना.

सोमवार का दिन पेमेंट का दिन होता है.

आधे दिन सुबह को काम होता है. दूसरे जून की छुट्टी रहती है. मजदूर हफ्ते भर का बाज़ार करते हैं.

इस दिन मास्साब सुबह से बैठ कर हिसाब मिलाते हैं. जो हाजिरी और हिसाब उन्होंने कर रखा है, उसे मजदूरों, रेज़ा और कारीगरों से पूछ कर चैक करते और  दस्तखत या अंगूठा लगवाकर पेमेंट करते हैं.

तो सोमवार पहली जून पेमेंट और शाम की छुट्टी. माने सोमवार का पूरा दिन काम नहीं होता. और आधे दिन का पेमेंट मास्टर साहेब बिना काम के भुगतते हैं.

अब काम काफी बाकी है. मास्साब के पैसे ख़तम हो गए. तो जो चार घरों की चाल नए बनते घर के उत्तर में छूट गयी थी. उसे बेंचना पड़ा.

और इसीलिये उनके घर में खिडकियों के बावजूद न तो उजाला आता और न ही हवा मिलती है. तो किराया भी उसी अंदाज़ में पर्याप्त नहीं मिला कभी.

खैर अब तो मास्साब नहीं हैं. उनका बेटा भी बूढा चला है. उसकी पत्नी ने काफी कुछ सम्हाल लिया है.

अभी हाल में मैंने देखा उनका घर अब सामने से भी एक अन्य घर से ढंकने लगा है.

                                         ……

3 Replies to “सरजू मास्टर ने घर बनवाया”

  1. Sarju bhaiya., 😊 the unforgettable..!!
    His interactions with Babbu Chacha,still amuse us.👌👌👍

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  2. Dada , Sarju bhaiya ka aur unke ghar banane ka jo aapne sajeev warnan kiya hai woh bahut sunder hai.Purani saari yaadein taaza ho gayeen.

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