विचित्र किन्तु सत्य

बात १९४८-१९४९ की होगी। मध्य प्रदेश के सिवनी शहर में अजीब सी एक बीमारी फ़ैल रही थी।

ज़्यादातर मरीज़ की जांघ के कोने में गिल्टी सी उठती और तेज़ बुखार आ जाता। प्लेग फैलने की कोई सूचना तो नहीं की गयी थी। पर रोज़ ब रोज़ इस मर्ज़ से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी। लोग प्लेग की आशंका से घबराने लगे थे। शहर के हर कोने से मरीजों की संख्या बढ़ने की ख़बरें आ रही थीं।

तभी एक चमत्कार हुआ। हमारे पिता जी के नाम पोस्ट से एक पार्सल आया। पैकेजिंग के कागज़ में टीन के चार गोल डब्बे आये. ३x२.५ इंच के जैसे आते हैं। डिब्बा बीच में लगे एक ढक्कन को उम्साकर खोला जा सकता था। डिब्बे की टीन नयी थी। उस पर न कोई रंग पुता था और न ही उसपर कुछ छपा था। जैसा आजकल के डिब्बों में होता है; नाम, कंपनी का नाम वगैरह लिखा होता है। उसमें वैसा न कुछ लिखा था, न ही छपा था। बस एक छपा हुआ आधा पेज का साधारण कागज़ साथ में रखा था। जिसमें गिल्टी के ऊपर दवा किसी कपड़े के छोटे से(१ वर्ग इंच टुकड़े में लगा कर मरीज को देने का निर्देश था।

मरीज़ उसे वैसे ही गिल्टी पर चिपका देगा।न किसी परहेज़ और न ही कोई एहितियात की बात लिखी थी। और न ही यह लिखा था कि दवा बीमारी को दूर कर देगी । या यही कि दवा कितने दिन या कितनी बार लगानी होगी।

जाने कैसे लोगों को पता लग गया कि हमारे घर दवा मिलेगी। और न ही हमें याद है कि हमने या पिता जी ने किसी को बताया कि हमारे घर दवा आयी है। तो लोग जाकर लेने लगें।

किन्तु आश्चर्य की बात यह कि लोग हमारे घर दवा के लिए आने लगे।और पिताजी सुबह अपनी वकालत छोड़ कर लोगों को दवा बांटने लगे।हम लोग देखते सुबह से ही घर के सामने लम्बी-लम्बी लाईनें लगने लगीं। दोपहर में जब पिता जी कोर्ट चले जाते, तो हम छोटे बच्चे ही दवा दे दिया करते थे।

दवा गाढ़ी चिपकने वाली गाढ़ी लेई सी ग्रीज़ सरीखी थी। पुराने किसी भी फटे हुए कुरते के कपड़े में थोड़ी सी दवा हम लकड़ी की चिपटी सी चम्मच से कपड़े में लगा कर दे देते थे। यह भी बताते थे उसे दवा की तरफ से गिल्टी पर रख कर चिपका देना है।

दवा निश्चय ही बहुत प्रभावी रही होगी। कुछ ही समय में गिल्टी बैठने लगती। और बुखार भी धीरे धीरे उतर जाता था।

पर चार डिब्बे कब ख़तम हो गए, पता ही नहीं चला। हमने पिता जी से और बुलाने कहा तो उन्हें भी भेजने वाले का पता नहीं मालूम था। वह चार डिब्बों का पार्सल अपने आप उनके पते पर आया था।

किन्तु दूसरे-तीसरे दिन और चार डिब्बे आ गए। पर इस बार भी बिलकुल उसी तरह और उसी हालत में।

पर फिर डिब्बे ख़तम होने लगे तो भी लोगों की भीड़ आती रही। लोग आग्रह करते कि पैसे ले लो, और मंगा लो। हमने उन्हें बताया कि हमें न पूरा नाम पता है, भेजने वाले का। न ही हमने स्वयं कहीं से मंगवाया। यह तो ईश्वर ने ही भेजा दोनों बार।

पूरी तरह असहाय थे।

एक बार और, माने तीसरी बार भी डिब्बे आये।

किन्तु इस बार केवल दो डिब्बे।

और फिर उसके बाद कोई डब्बा नहीं आया।

धीरे धीरे लोगों का आना भी कम होते होते बंद हो गया।

और फिर जो बीमारी अचानक आयी थी रुक गयी।

और हम लोग भी बीमारी के बारे भूल ही गये।

कौन इसे भेजता था?

कौन जानता था कितनी भेजना है?

और भेजने वाले को कैसे पता चला कि अब ज़रुरत नहीं है?

सारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए।

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