बात पुरानी है| करीब साथ साल पहले जब मैं सातवीं – आठवीं में पढ़ता था, मुझे अजीब सी बीमारी हो गयी सारे बदन में चिलकन सी हुआ करती थी| अंतिम निदान आयुर्वेद में मिला | किन्तु जैसा आयुर्वेद के इलाज में होता है,समय कुछ ज़्यादा लग जाता है | तो मुझे भी आठ दस दिन की छुट्टी लेनी पड़ी| किस्सा उसी दौरान का है| हमारे घर के पीछे पूर्व दिशा में देवी जी का मंदिर था| मंदिर के सामने की सड़क कटंगी रोड कहलाती थी|
सो मंदिर के सामने आस पास छोटी सी बस्ती थी| कुछ घर मुसलमानों के थे और कुछ अहीरों के|
समय समय पर मंदिर के सामने सड़क पर बैठ कर हिन्दू महिलायें माँ के ‘ जस ‘ गाती थीं| तो इसी बीच, एक बार, जस हो रहे थे| बहुत सी महिलायें नीचे सड़क में बैठे भजन गा रही थीं| जस के बीच किसी किसी महिला को ‘भाव’ आ जाते| और वह ज़ोर ज़ोर से सर झटकारते हुए ऊपर मंदिर में चढ़ आतीं और मूर्ती के सामने आकर खड़ी हो जातीं| वहां एक दो मांत्रिक खड़े रहते, वे उस महिला को लोभान सुंघाते और हाथ में कुछ दाने ( शायद, उड़द के ) दे देते तो वह भाव वाली महिला बोलने लगती|
उस दिन की घटना मुझे याद है| मैं मंदिर के ही अंदर था| एक तो मंदिर हमारे घर में था| दूसरे वहां का प्रमुख मांत्रिक बीरबल था| जो बस्ती के प्रमुखों में से था| – उसका बेटा नागपुर में जी पी ओ में अधिकारी था| माने हम बच्चों के मन में वह समझदार पढ़ा लिखा व्यक्ति था| – तो मैं भी मंदिर में ऐसी अवस्था में भी सहज प्रवेश पा सका था|
हाँ, तो इस प्रकार चार छह महिलायें इस तरह ऊपर मंदिर में ‘भाव’ आ जाने पर आईं| नीचे सड़क पर ‘जस’ निरंतर गाये जाते रहे और बीच बीच में जिनको भाव आते गया वे भेजे जाने पर, या स्वयं ही ऊपर मंदिर में अंदर आ जाती थीं| और लोभान सूंघने और उड़द के दाने हाथ में लेने के बाद बोलने लगती थीं|
मुझे पक्का याद है, इसके बाद की एक घटना| महिलाओं में एक महिला सुनारन भी थी, जो हमारे घर के सामने की तरफ सड़क के छोर पर सुनारों की बस्ती में रहा करती थी. उसके पति का नाम मंहगू था. और उनका एक बेटा था| वह दस बारह साल का ज़रूर था| किन्तु किसी बीमारी से शायद पीड़ित रहा होगा| अकेला खड़ा नहीं हो पता था| बदन भी उसका इधर उधर मुड़ता-घूमता रहता| हाथ भी इसी प्रकार हिलते डुलते मुड़ते रहते थे|
तो वह सुनारन भी भावग्रस्त होकर ऊपर चली आयी| उसने स्वयं होकर न तो लोभान सूंघा और न उड़द के दाने देने पर बोलना शुरू किया| डरी हुयी सी खड़ी रही|तो मांत्रिक लोग समझ गए| उसे गेहूं के दाने दिए तो वह थोड़ा पीछे सरक के घबराई हुयी खड़ी रही|
इतने में एक दुबली पतली अहीरन को भाव आ गए और वह अपने आप सीढ़ियों से चढ़ कर मंदिर के अंदर चली आयी| दूर से ही लुभान सूंघ लिया और हाथ बढ़ा दिया। हाथ में उड़द मिलते ही गुस्से में बोलने लगी, ” तेरी हिम्मत कैसे हुयी, यहाँ मेरे घर आने की?” और धमा-धम हाथ से, मुक्कों से उस सुनारन को धुनते रही| वह सुनारन कोई प्रतिकार नहीं कर रही थी| पिटते रही और घबराते रही| मांत्रिकों को तो शक हो ही गया था| उन्होंने पूछ, माँ कौन है यह? कहाँ से आया?
तो उस दुबली पतली महिला ने उसे पीटना जारी रखते हुए कहा, इसके मायके का है पीपल के झाड़ में रहता है| और धमाधम पीटना जारी रहा| बोलीं, तेरी हिम्मत कैसे हुयी यहाँ आने की? तब तक मांत्रिकों ने माँ से प्रार्थना की; “ माँ इसकी रक्षा करो|” माँ ने कहा, खबरदार कभी आगे इधर का रुख किया| और इसे परेशान किया| “ मैं तुझे छोडूंगी नहीं|”
तब तक पीटा,जब तक उसने सुनारन को छोड़ कर जाने का वादा नहीं किया| और माँ के स्थान पे न आने का भी|
सुनारन नीचे जाकर बैठ गयी| मैंने देखा, मांत्रिकों ने माँ को मनाया। और कहा माँ हमसे क्या गलती हुयी? माँ ने कहा तुम लोगों ने वादा किया था, भोग (बकरा?) चढाने का; और पूरा नहीं किया|
“क्या मैंने माँगा था?
“तुम लोग झूठे हो|”
फिर मैं सुनारन को ध्यान से देखता था| वह देखने में ठीक थी| पहले भी शांत रहती थी| और अब बाद में भी| हाँ उसके बेटे में थोड़ा बहुत सुधार दिखा| उसका हमेशा डोलता शरीर क्रमश: शांत होते दिखा। फिर वह परिवार कहाँ चला गया, हमारे ध्यान में न रहा|
मंदिर में स्थापित जो मूर्ति आप देख रहे हैं, वहाँ स्थापित नहीं थी। इस मूर्ति के बगल में जो छोटी मूर्ति है वह वहाँ स्थापित थी। बडी मूर्ति हैं वह सिवनी के मठ मंदिर के सामने तालाब के बगल में ज़मीन के अंदर दबी हुयी थी। हमारे ताऊ जी को स्वप्न में दर्शन देकर माँ ने कहा कि अमुक स्थान से मूर्ति को बाहर निकालो।
पिताजी ने दूसरे दिन सुबह कुछ मज़दूरो को बुलवाकर हमको बताये स्थान पर कुदाली फावडा लेकर भेजा। हम लोगो ने निर्धारित स्थान पर खुदायी करायी।
किंतु कुछ नहीं मिला।
हम लोग खाली हाथ लौट आये।
उस रात ताऊ जी को फिर स्वप्न आया कि जहाँ खुदाई की गयी, उससे थोडा आगे और तालाब की तरफ भी, कुछ और आगे, खुदाई करवाओ।और इस बार यह भी बताया गया, कि यहाँ मेरे साथ, हनुमान जी भी हैं।
सो दूसरे दिन हम लोग फिर से मज़दूरो को लेकर गये । और थोडा और मठ की ओर और थोडा तालाब की ओर खोदा तो दो मूर्तियॉ मिली। बडी मूर्ति देवीजी की और छोटी मूर्ति हनुमानजी की मिली। देवीजी की मूर्ति की नाक थोडी सी टूटी हुयी थी। हनुमानजी की मूर्ति छोटे से मेहराब के अंदर बनी थी। मेहराब थोडी इधर उधर से झड गई थी। पर साबूत थी।
देवी जी की नाक सीमेंट से ठीक करवाई गयी। और पूजा पाठ करवा कर स्थापित की गयी।
पहले मंदिर में माँ की मूर्ति की बगल में हनुमान जी की मूर्ति भी रखी गयी थी। बाद में ऐसा सोचकर कि माँ और हनुमान जी को साथ में स्थापित नहीं किया जाता, हम लोगो ने हनुमान जी की मूर्ति घर के सामने के काल भैरव के चबूतरे पर मूर्ति लाकर रख दी। बीच में पत्थर के बने हुये दो जिलहरी वाले शंकर जी की पिंडिया हैं। उन के उत्तर दिशामें हनुमानजी को स्थापित कर दिया था। अब मोहल्ले वालो ने चबूतरे के ऊपर मंडप बनाकर उसे मंदिर की शकल दे दी है।
इन्ही देवीजी के सामने की पीछे की बस्ती वाले सभी लोग श्रद्धा से पूजा तथा अन्य विधान पूरे करते हैं। यह पता नहीं कि अब वहाँ सड्क पर बैठ कर महिलाएं ‘जस’ गाती हैं, अथवा नहीं।
इतना ज़रूर है कि शहर में कुछ भी बीमारी हो या कुछ असामान्य घटित होवे, उन दिनों यह इलाका पूर्णत: निरापद रहा आता था।
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Maa ki mahima aprampar hai . Pirani navratri ke time yaad aa Gaye.. kanya bhojan me jana yaad aa gaya..🙏🙏
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🙂 Dhanywad Megha
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