समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ…

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समय के अलसाये प्रवाह में तैरता हुआ

मन मेरा बढ़ता है, निरखता

बीते हुए रिक्त अंतराल को.

विचरते मार्ग से उस विशाल रिक्ति के

उभरते हैं चित्र मेरी आँखों के आगे.

युग-युगों में निकले हैं हुजूम,

जन समूहों के, होकर विशाल अतीत से.

विजय के उन्मत्त वेग के साथ.

साम्राज्य-क्षुधित पठान आये,

और आये मुग़ल:

रथ-चक्र से विजय के

उड़ातेगुबारधूलके;

तथा फहरायीं पताकाएं विजय की.

अब देखता हूँ, खाली पथों पर.

नहीं है शेष आज कोई चिन्ह उनका.

नीला आकाश प्रभात और संध्या का,

युगों से,

रंगता रहा है प्रकाश से सूर्योदय

और सूर्यास्त के.

रिक्ति में उसी, अब फिर,

आ गए हैं झुंडों में लौह-जटित

मार्गों से

आग उगलते रथों में,

बल शाली अंग्रेज़,

खिराते शक्ति अपनी.

मार्ग से उनके भी बहेगी समय की धारा,

ढहाती देश-व्यापी जाल साम्राज्य का.

माल-लादे उनके हुजूम,

पीछे न छोड़ पायेंगे निशान कोई अपना

सूने रास्तों पर तारों भरे राज्य के.

जब पड़ती है धरती पर नज़र मेरी

देखता हूँ हुजूम वहाँ

विचरते उन्माद में,

विविध रास्तों पर अनेक समूह में

युग-युगों में,

प्रेरित मानव की दैनंदिन आवश्यकताओं से जीवन

और मृत्यु की.

वे सदैव,

खेते हैं नाव, पकड़े पतवार;

खेतों में,

बोते हैं बीज और काटते उपज.

लगातार जुटे काम में.

टूटता है राज का प्रभुत्व, बजती नहीं रण-भेरी

अब आगे;

विजय-स्तम्भ टूटते हैं, मूढ़ता अनजान

स्वयंअपनेअर्थसे;

रक्त रंजित अस्त्र, और रक्तिम

नेत्र और चेहरे

छुप जाते हैं दुनिया में, कहानी की किताबों में बच्चोंकी

और वो निरत हैं काम में निरंतर;

अंग, बंग और कलिंग में, समुद्र में और

घाटों पर नदी के,

बम्बई में, पंजाब और गुजरात में.

सहस्रों गूँज बुनी साथ में, एक गरजदार

आवाज़ में, रात और दिन

मुखर कर रही है जगत की

आजीविका को.

हर्ष और विषाद अनवरत,

मिल रहे हैं, एक प्रबल स्तुति में

जीवनकी,

अवशेषों पर सैकड़ों ध्वस्त साम्राज्यों के,

वे जुटे हुए हैं काम में.

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Image : Google

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